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सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीयता के वाहक: मैथिलीशरण गुप्त

आज भारतीय संस्कृति के अद्वितीय उद्गाता, राष्ट्रीय चेतना के महान उत्प्रेरक, द्विवेदी युग के सर्वाधिक लोकप्रिय और आधुनिक हिंदी साहित्यकारों में सर्वाधिक ज्योतिर्मय प्रकाश पुंज राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्मदिन है। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगरी झांसी के एक गांव, चिरगांव में 3 अगस्त 1886 ई. में हुआ था। माता काशीबाई धार्मिक महिला थी और पिता श्री रामचरण गुप्त हिंदी कविता में रुचि रखते हुए 'कनकलता' नाम से स्वयं काव्य रचना करते थे, जिसमें भक्ति रस की प्रधानता रहती थी। वह पक्के वैष्णव थे तथा वैष्णव कवियों के पदों को बड़ी तन्मयता के साथ गाया करते थे। इस तरह गुप्तजी को रामभक्ति और काव्य रचना की प्रेरणा विरासत में मिली। पूर्वाजित संस्कार, संस्कृत काव्यों में अभिरुचि, बंगला साहित्य के प्रति आकर्षण आदि गुप्त जीत के व्यक्तित्व में सामूहिक रूप से थे। गुप्तजी ने लगभग 15 वर्ष की अवस्था में ही साहित्यिक प्रतिभा संपन्न होने का प्रमाण दे दिया था। वह नित्य प्रति स्लेट पर तुकबंदी करते और मिटा देते थे किंतु संकोच बस यह बात अपने पिताजी से नहीं कह पाते।एक दिन उनके पिताजी के मित्रों ने काव्य-रचना के बाल प्रयास की शुभ सूचना उनके पिता रामचरण जी को दी। वे मन ही मन प्रसन्न हुए और परोक्ष रूप से कवि होने का आशीष भी दिया। सुकवि होने का यह आशीष गुप्त जी के जीवन में आगे चलकर फलीभूत भी हुआ। पिता के आशीर्वाद और गुप्त जी के लगन को उस समय के प्रसिद्ध साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पहचान लिया और अपना वरदहस्त उन पर रख दिया। 1906 ई. से इनकी कविताएं 'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित होने लगी जो आजीवन चलता रहा।उनकी वाणी में राष्ट्र का, लोक का स्वर था। वे लोकमानस के कवि होने के कारण ही राष्ट्रकवि बने। 
राष्ट्रकवि गुप्त जी ऐसे कवि थे जो साहित्य-रचना के क्षेत्र में व्यक्तित्व की अभिव्यंजना को भी महत्व देते थे। उनका कृतित्व उनके व्यक्तित्व की सफल व्याख्या को प्रस्तुत करता है। लगभग 64 वर्षों की साहित्य साधना में गुप्त जी ने मौलिक और अनुदित दोनों तरह की रचनाएं कीं। गुप्त जी महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संपर्क में आने से पहले 1901ई. से ही काव्य रचना करने लगे थे,किंतु इनका प्रथम काव्य-संग्रह 'रंग में भंग' 1909 ई. के आस-पास प्रकाशित हुआ। 'रंग में भंग' से शुरू हुआ उनके साहित्य साधना का सफर 'साकेत', 'यशोधरा', 'भारत भारती', 'पंचवटी', 'सिद्धराज', 'द्वापर', 'जय भारत', 'विष्णु-प्रिया', 'कुणाल-गीत', 'पृथ्वी पुत्र', 'युद्ध', 'अंजलि' और 'काबा और कर्बला' आदि जैसी रचनाओं तक चलता है।इसी तरह इन्होंने बंगला से, संस्कृत से, फारसी से कई रचनाओं का अनुवाद किया। इनकी मौलिक गद्य रचनाएं 'तिलोत्तमा', 'चंद्रहास', 'अनघ' आदि के रूप में जानी जाती है।  
 गुप्तजी भारतीय नवजागरण के उन्नायक कवि थे। उन्होंने प्राचीन और नवीन के बीच सेतु का काम किया। उनके काव्य का कथ्य पुराण और युग की धारा है। समय की मांग के अनुसार उनके काव्य का कलेवर भी बदलता चला गया। भारत के उज्ज्वल अतीत से उनका विशेष अनुराग था, पर उन्होंने वर्तमान की उपेक्षा कभी नहीं थी। प्रथम पुस्तक 'रंग में भंग' के प्रकाशन के बाद 'भारत-भारती' का प्रकाशन हुआ, जिसमें राष्ट्र गौरव की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। इसमें प्रेरणामयी ओजस्वी वाणी में इनके द्वारा पूछे गए प्रश्न 'हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी' ने भारतीय जनमानस की सुषुप्त चेतना को झकझोर कर उन्हें आत्म मंथन के लिए विवश कर दिया। वे अपनी अपहृत स्वतंत्रता की पुनर्प्राप्ति के लिए संकल्पित हुए।
'भारत‌‌-भारती' के खंड विभाजन को देखने से यह पता चलता है कि गुप्तजी ने भारत की राष्ट्रीयता के बारे स्वतंत्र रुप से सोचा है। देश के प्रति श्रद्धा और गर्व का भाव उत्पन्न करने में तीनो खंडो का अपना अलग अलग महत्व है। 'अतीत-खंड' में कवि देशवासियों को देश की वर्तमान व्यवस्था से परिचित कराता है। इसी तरह 'वर्तमान' और  'भविष्य' खंड में कवि  देशवासियों को अपना कर्तव्य निर्धारित करने तथा उसे प्रोत्साहित करने की बात करता है।इन तीन खंडों में गुप्तजी की दृष्टि आशावादी रही है। प्राचीनकाल के वर्णन में कवि ने प्रचीन गुणों को सुरक्षित रखते हुए भविष्य के आदर्श की चर्चा की है।गुप्तजी अंग्रेजों के तत्कालीन पतन से निराश नहीं नहीं होते, अपितु देशवासियों में जोश भरते हुए पुनर्निर्माण की बात करते हैं।
परधीनता के समय इस रचना की महत्ता द्विगुनित हो जाती है, क्योंकि एक हीन जाति को इस रचना में उसका गौरवपूर्ण अतीत याद कराया गया है। वे भारत की प्रचीन महिमा पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं -
"हॉ वृद्ध भारत वर्ष ही संसार का शिरमौर है।
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भवभूति का यह प्रथम भंडार है।
विधि ने किया नर सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है॥
गुप्त जी का मानना है कि  विदेशियों के आगमन से पहले भारत की दशा बहुत उत्कृष्ट थी। सभी प्रकार से हमारी संस्कृति उन्नत थी। लेकिन धीरे-धीरे पारस्परिक वैमनस्य और फूट बढ़ता  गया, जिससे विदेशियों को यहाँ आने का अवसर मिला। इस संदर्भ में गुप्त जी जयचंद और पृथ्वीराज के वैमनस्य का चित्रण करते हैं। इसी वैमनस्यता के कारण मुसलमानों को यहाँ आकर शासन करने का मौका मिला। यवन लोगों ने यहाँ आकर असंख्य लोगों का धर्म परिवर्तन कर दिया, यहाँ के लोगो को घोर कष्ट दिए और नारियों तक के धर्म को नष्ट कर दिया। इनके अनुसार हमारे ही लोगों ने अपने वैमनस्य के कारण विदेशियों को निमंत्रित किया और हम पराधीन हो गए। पराधीनता के बाद हमारे देश की स्थिति क्या है? का चित्रण करते हुए गुप्तजी लिखते हैं--
"जो हम कभी फूले फले थे रामराज्य बसंत में,
हाँ! देखनी हमको पड़ी औरंगजेबी अंत में।
है कर्म का ही दोष अथवा सब समय की बात है,
होता कभी दिन है, कभी होती अंधेरी रात है॥
गुप्तजी अपने देश और स्वजाति को संपन्न देखना चाहते हैं.भारत की दुर्दशा के बारे में अंग्रेजी शासन-व्यवस्था पर सवाल करने से पहले वे देश के आर्यों को भी दोष देते हुए कहते हैं--
"हाँ आर्य्य, संतति आज कैसी अंध और असक्त है,
पानी हुआ क्या हमारी नाड़ियों में रक्त है?
संसार में हमने किया बस एक ही काम है
निज पूर्वजों का सब तरह हमने डुबोया नाम है। 
गुप्त जी का ध्यान कृषि कि अवनति,किसानों के शोषण और ब्रिटिश व्यापार नीति कि विडंबना पर जाता हैं। वर्तमान खंड में वह अपने समय के भारत कि दुर्व्यवस्था का व्यापक चित्रण करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भूख और गरीबी ही वर्तमान की स्थिति को बेहतर तरह से परिभाषित कर सकते हैं । दुर्भिक्ष का सांगोपांग वर्णन ब्रिटिश राज व्यवस्था की अमानवीय नीति पर प्रकाश डाल रहा है । समाजिक एवं सांस्कृतिक दशा में आए हुए घोर पतन का विस्तृत चित्रण करते हुए गुप्त जी परोक्ष रूप से देश के राष्ट्रीय पतन का संदेश देते हैं। इसका जिक्र करते हुए वे लिखते हैं--
"भारत, कहो तो आज तुम क्या हो वही भारत अहो!
हे पुण्यभूमि, कहाँ गई है वह तुम्हारी श्री कहो?
अब कमल क्या, जल तक नहीं , सर मध्य केवल पंक है,
वह राज-राज कुबेर अब हा! रंक का भी रंक है॥


'भारत-भारती' के बाद गुप्त जी द्वारा लिखित 'साकेत' और 'यशोधरा' को भी विशेष सम्मान मिला। साकेत के प्रणयन का प्रमुख उद्देश्य तो काव्य-क्षेत्र में उपेक्षित 'उर्मिला' को अमरत्व प्रदान करना था, किंतु राम के अनन्य भक्त होने के कारण वे राम के गुणगान करने के लोभ से भी न बच सके। गुप्तजी ने इस ग्रंथ को उर्मिला के आंसुओं से लिखा है। मानव जगत की सभी अंतः प्रवृतियां इसमें चित्रित हुई हैं। प्राचीन और नवीन का सुंदर समन्वय यहां दिखता है।भारतीय रमणीयों के सामने उन्होंने उर्मिला को आदर्श पत्नी के रूप में प्रस्तुत किया जो सीता के चरित्र से भी ऊपर उठता है। इसी तरह गुप्तजी ने विरहिनी यशोधरा का चित्रण भी अत्यंत मनोयोग से किया है।
रुचि एवं प्रवृत्ति से गुप्तजी रामोपासक वैष्णव कवि थे किंतु धार्मिक संकीर्णता व कट्टरता उनमें बिल्कुल नहीं थी। उनका जीवन-दर्शन उदार और मानवतावादी था, इसलिए संप्रदायिक सद्भाव और सब धर्मों के प्रति समभाव इनकी रचनाओं में मिलता है। यदि 'साकेत' में रामचरित का वर्णन है तो 'द्वापर' में कृष्ण-चरित का, 'अनघ' में बुद्ध-चरित है तो 'काबा और कर्बला' में 'हसन' और 'हुसैन' की कहानी है। इसी तरह 'यशोधरा' में गौतम बुद्ध से संबंधित चरित्र के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। गुप्त जी की राष्ट्रीयता और संस्कृति प्रेम जाति धर्म और राष्ट्र से ऊपर विश्व बंधुत्व पर केंद्रित थी। उनके बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने सही कहा है कि गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं, प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमने वाले नहीं। सब प्रकार के उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीनता के प्रति पूज्य भाव तथा नवीनता के प्रति उत्साह दोनों ही इनमें है।
गुप्त जी की कविता में अनुभूति पक्ष जितना विशद व सशक्त है उतना ही शिल्प पक्ष सक्षम और प्रखर है। ब्रज भाषा से काव्य रचना प्रारंभ करने वाले गुप्त जी महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आने के कारण खड़ी बोली में काव्य रचना आरंभ किया और उसे पूर्णत: अपनाकर एक नई दिशा देने की कोशिश की।अपने विपुल परिमाण साहित्य, भाषा के निर्माण तथा जीवन को समग्रता में ग्रहण करने के कारण गुप्तजी महाकवि हैं। मैथिलीशरण गुप्त हिंदी काव्य जगत के उन कतिपय विभूतियों में से हैं जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी कृतियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता को प्रतिपादित करने का दुरुह कार्य किया। उनकी रचनाओं में मानव जीवन का संदेश है, अतीत का गौरव गान है। वे भारतीय संस्कृति और सभ्यता के दर्पण हैं।

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