“लोकगीते तथा नृत्ये: नाटके च सुभाषिते।
लोकगाथा कथायां चा:सदारमतु में मनः॥"
'लोक' का तात्पर्य:-
आदिम मानव के मस्तिष्क की सीधी और सच्ची अभिव्यक्तियों का मुख्य स्रोत है-'लोक'। समाज में प्रचलित रीतिरिवाज, प्राचीन विश्वास, मान्यताएं, धार्मिक-संस्कार, उत्साह, त्यौहार, आचार-विचार, प्रथाएं, साहित्य आदि लोक-मानस की अभिव्यक्ति करते हैं। लोक' एक व्यापक शब्द है। अपने परिसर से लेकर जितनी दूर तक पांव-तले की भूमिजाती है, वहां तक का विस्तार 'लोक' होता है।
आधुनिक युग के विद्वान 'लोक' की व्याख्या अंग्रेजी शब्द 'फोकलोर' के आधार पर करते हैं। “फोकलोर' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टॉमस नामक विद्वान ने सन 1846 ई. में किया था।“
पश्चिम के विद्वानों के अनुसार फोक मनुष्य-समाज में उस वर्ग का द्योतक है “जो अभीजात्य संस्कार, शास्त्रीय और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शुन्य है औरपरंपरा के प्रवाह में जीवित रहते हैं।“
भारतीय मनीषियों के अनुसार 'लोक' को फोक' के पर्याय रूप में मानना अनचित है। भारतीय वाङमय में 'लोक' को 'जन' का समानार्थी मानते हैं, लेकिन कुछ विद्वान इससे सहमत नहीं होते हैं। उनकी राय में यह लोक-ज्ञान का प्रत्यक्ष दर्शन करने वाला है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भी 'लोक' के लिए कहा कि “लोक गांवों और नगरों में फैली हुई वह संपूर्ण जनता है, जिसके व्यवहारज्ञान का कोई आधार-ग्रंथ नहीं होता है। लोक' प्राकतिक, सरल वातावरण में बसने वाला जन-समुदाय है तथा वह अपनी परंपराओं को प्रत्यक्ष दर्शन से आगे बढ़ाता है। यह परंपराएं विश्व-मानवता को शांति और प्रेम का पाठ पढ़ाती है।“
भारतीय परिपेक्ष में 'लोक' शब्द केवल भौतिक जगत से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसमें जड़, चेतन की भी छाप हमारे जीवन पर निःसंदेह पड़तीही है। ऋग्वेद में 'लोक' शब्द का प्रयोग ‘स्थान', 'भवन', 'जन-सामान्य' आदि अर्थों में किया गया है।
लोकगीत एवं लोकसाहित्य : एक दृष्टि:-
महात्मा गांधी के अनुसार-“लोकगीत ही जनता की भाषा है।“
उनके इस कथन की परिधि में जनता परिभाषित होती है।इसके मल में लोक शब्द की प्राणवत्ता और उसकी गरिमा को उन्होंने
जनता में बैठकर बहुत निकट से देखने के लिए लोकगीतों को ही माध्यम बनाया था। विद्यापति के मक्त कंठ से निकले वक्तव्य:"देसिल बयना सब जन मीठा” की घोषणा को गांधीजी के उपर्युक्त कथन की परिधि में देखा जा सकता है। भोजपुरी लोकगीत-गायिका मालिनी शर्मा कहती हैं- “लोकगीतों की एक खासियत यह है कि लोकगीत वही कहते हैं, जो आम आदमी सोचता है। जो भोले आदमी सोचते हैं।“
लोक-साहित्य में लोकगीतों में सबके मंगल की कामना समाहित होती है। यह लोकमंगल दृष्टि जीवन की सार्थकता का बोध कराती है। उसकी शाश्वत निरंतरता का आभास दिलाती है।
लोक-साहित्य में लोकगीतों की अपनी एक अलग ही पहचान होती है। मानव-मन के उद्गार तथा उनकी सक्ष्म अनुभूतियों का सजीव अंकन मिलता है। लोक-साहित्य के अंतर्गत लोकगीतों को जन-जीवन का दर्पण कहा जाए तो संभवतः अत्युक्ति न होगी। लोक-साहित्य की परंपरा मौलिक है और इसीलिए आज हमें जहां दूसरे प्रकार के साहित्य का लिपिबद्ध रूप प्राप्त होता है, वहीं लोकसाहित्य में लोकगीत जो है, वे लोक-जीह्वा से उच्चरित होकर क्रियात्मक व सृजनात्मक स्वरूप को प्रतिबिंबित करता है। लोकगीत वह गेय गीत है, जिससे जन-मानस का अनरंजन सदा होता रहता है।
लोकगीतों के अध्ययन के संबंध में प्रसिद्ध विद्वान अकेदेमीशीयन वाई.एम. शोकोलाव के विचार को प्रस्तुत किया जा सकता है कि उन्होंने रूसी लोकगीतों को ध्यान में रखकर अपने सिद्धांत स्थिर किए हैं, परंतु “वे सिद्धांत ऐसे हैं जिनके सहारे संसार के किसी भी देश के लोकगीतों का अध्ययन किया जा सकता है। रूस की तरह भारत भी सामंतवादी व्यवस्था से आगे बढ़कर समाजवादी व्यवस्था अपना रहा है। इसी सांस्कृतिक निधियों का पुनर्मूल्यांकन उसी प्रकार करना होगा, जिस प्रकार सोवियत रूस में हुआ।
यहां एक प्रश्न मन में उठ ही जाता है कि लोक-साहित्य और कलात्मक-साहित्य में क्या अंतर है? उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर के तौर पर कहा जा सकता है कि लोक-साहित्य का रचयिता कोई एक व्यक्ति नहीं होता है, जबकि इसके विपरीत लिखित साहित्य का कोई एक रचयिता होता है। दूसरे लोक-साहित्य को कला-विहीन और कलात्मक-साहित्य को कला-मंडित माना जाता है। साल्ट विलियम्स ने लिखा है- “A folk song is neither new her old, it is like a forest tree with its roots deeply breed in the part, but which continually put forth new branches.”
लोक-साहित्य 'लोकवार्ता' का ही समीचीन है। आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोक-साहित्य को 'लोकवार्ता' के नाम से जाना जाता है।
भोजपुरी : नामकरण:-
भोजपुरी' का नामकरण राजा भोज और उसकी राजधानी आधार पर बताया जाता है। प्राचीन वाङ्ग्यमय काभोजक प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष के लिए न होकर जातीय या समुदाय के लिए हुआ है। भोजपुरी' शब्द से भोजपुरी भाषा का दयोतन होता है। भोजपुर बिहार के प्राचीन शाहाबाद जिले के पश्चिमोत्तरी भाग में स्थित एक परगना है। बागसार नामक जिस स्थान पर बक्सर का युद्ध हुआ था, वह स्थान भोजपुर के पश्चिम में स्थित है। "सन् 1673 में बिहार सरकार ने जब जिलों का पुनर्विभाजन किया तो शाहाबाद के दो जिले बने- दक्षिण जिले का नाम रोहतास पड़ा और उत्तरी भाग का नाम भोजपुर। जिले का भोजपुर नाम इस बात का प्रमाण है कि जन-मानस में भोजपुर शब्द के लिए नैसर्गिक सम्मान अविच्छिन्न बना हुआ है।“ इस क्षेत्र में प्रायः सभी प्रमुख धर्मों, जातियों तथा श्रेणियों के लोग रहते हैं। यहां का मुख्य व्यवसाय कृषि है और इसी पर आधारित सारे व्यापार हैं। यहां के जो आमजन हैं, वे श्रमजीवी एवं शूरवीर हैं। ये अपने धुन और लगन के पक्के होते हैं। इस क्षेत्र के लोग अपनी स्वतंत्र मेधा, प्रतिभा और स्वतंत्रताप्रियता के लिए प्रसिद्ध हैं। अपनी संस्कृति में गहरी आस्था रखने वले ये लोग न सिर्फ भारत में बल्कि फीजी, मॉरिशस, सूरीनाम, ट्रिडिनाड में भी निवास करते हैं और अपने भोजपुरी होने पर इन्हें अत्यंत गर्व होता है।
भोजपुरी लोकगीतों की विशेषता:-
भोजपुरी लोकगीतों की प्रथम विशेषता उनकी गेयता है, दूसरी इन गीतों में राममयता और शिवत्व का होना है, तीसरी विशेषता है कि इन गीतों का प्रकृति के साथ गहरा तादात्म्य होता है। मनुष्य और प्रकृति में बिंब प्रतिबिंब का भाव बार-बार दिखलाई देता है। चौथी विशेषता कि इन गीतों में सामान्य जीवन से इनका साधारणीकरण होना है; जैसे- लोकगीतों में शिव करसी (उपलाकण्डा) बटोरते हैं और बाटी लगाते हैं। सीता गाय के गोबर से घर आंगन को लीपती है, अर्थात देवत्व को सामान्य बनाने के लिए इनका (सामान्य) एकाकार किया जा रहा है।
कजरी का अभिप्राय:-
भोजपरी क्षेत्र में 'कजरी' का अपना एक विशेष महत्व है. 'कजरी' को भोजपुरी क्षेत्र के लोग अपनी कोमल और मार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का सबसे सरल गुण मानते हैं। यह सावन- भादो के महीने में प्रायः झूला-झूलते समय कुमारी एवं विवाहित स्त्रियां गाकर अपने मनोभावों को व्यक्त करती हैं। यों तो कजरी सभी गांवों और नगरों में गाई जाती है, परंतु मिर्जापुर और काशी में अति लोकप्रिय है। इन क्षेत्रों को 'कजरी' का गढ़ माना गया है।
“लीला राम नगर की भारी
कजरी मिर्जापुर सरनामा”
इधर कुछ वर्षों से अयोध्या में भी सावन मास में राम को झूला-झूलाते हुए कजरी गाने की प्रथा चली है। भाद्र पक्ष में कजरी' नामक एक स्त्रियों का त्योहार होता है, जिसमें रात भर झूला-झूलकर वे 'कजरी' गाती हैं। 'कजरी' में श्रृंगार और विरह दोनों का अद्भुत संगम इसकी विशिष्टता को अंकित करती है। यह लोकगीत स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों के द्वारा गाया जाता है। स्त्रियों की कजरी' में भाव की विपुलता होती है, साथ-ही यह गीत छोटे होते हैं। पुरुषों की 'कजरी' का स्वरूप बड़ा होता है। इनके गीतों में बुद्धि-विलास के साथ-ही-साथ समस्याओं की कसक भी रहती है। यहां कतिपय 'कजरी' गीतों को की बानगी निम्नानुसार है- संदर्भ- रात में काले बादलों को देखकर एक सखी अपनी दसरी सखी से कहती है
“सखी हो! कारी बदरिया रात देखत नीक लो एक हरि
पर गर गरजै चम चम चमकै सखि हो! झम झम बरसे ना।“
संदर्भ- सावन की बहार देखने के लिए एक सखी अपनी दूसरी सखी को बगीचे में चलकर वहां का प्राकृतिक दृश्य देखने का प्रस्ताव दे रही है-
"चिरिई चल चलीं बगइचा
देखे सावन की बहार
देखे फूलन की बहार
सावन में फूले बेला चमेली
भादो में कचनार सखी हो!
चल चलं बगइचा।।“
यहां सखी दूसरी सखी से कहती है कि सावन में प्राकृतिक दृश्य कितना मनोरम हो उठता है। फूलों से डालियां लद जाती हैं, जिनसे बागों की रौनक बढ़ जाती है।
संदर्भ- इस 'कजरी' में देवर को मुख्य पात्र मानते हुए एक सखी, जो हास्य, विनोद एवं व्यंग से दसरी सखी से कहती है
"हरि हरि हवा बहै पुरवैया, पिया मोर सोवे रे हरी॥ टेक।।
सोने के थाली में जेवना परोसलँ, सेंया जोवें आधिरात देवर बड़े भोरे
रे हरी।
चांदी के गेहूँआ गंगाजल पानी, सेंया पियेला आधिरात देवर बड़े
भोरे रे हरी।“
उपर्युक्त पंक्तियों में देवर को मनोविनोद का पात्र बनाकर कजरी गाई गई है, जिससे रोचकता के साथ व्यंग्य का अमल्य मिश्रण हो रहा है, जिससे मनोरंजन में चार चाँद लग जाता है।
‘कजरी' में न सिर्फ इस प्रकार हंसी-ठिठोली और विरह का वर्णन भोजपुरी क्षेत्रवासी करते हैं, बल्कि इनके माध्यम से वे देशभक्ति का वर्णन भी करते हैं। साथ-ही जीवन की अंतिम सच्चाई अर्थात मत्य को भी गेयता साथ के दार्शनिक स्वरूप में प्रस्तत करने में समर्थ हैं; जैसे
संदर्भ- जीवन का अंतिम सत्य-
“सुगना निकल गइल पिंजड़ा से, खालील पड़ल रहल तसबी।टेक।।
केहू रोवे केहू मलि मलि धोवे, केहु पहिनावे ची।।1।। सुगना...
चारि जना मिली खात उठवले, ले गइले गंगातीर।।2।। सुगना...
फूँकि फूँकि कोइला कहले, भामसी भइल सरीर।।3।। सुगना...”
इस गीत में जीवन की सच्चाई को कितनी सरलता, भाव विह्वलता और सजीवता के साथ कहा गया है कि मृत्यु के लिए राजा और रंक दोनों बराबर हैं। सबके जीवन की यही सच्चाई है। सबको जलना है और भस्म हो जाना है।
संदर्भ- देशभक्ति- इस कजरी में एक पत्नी अपने पति के साथ देशभक्त बनने से रोकती और खुद पीछे हटती है, बल्कि वह कहती है कि अगर देश के लिए हम थोड़ा-सा इस जीवन में कुछ हित कर तो हम लोगों का जीवन धन्य हो जाएगा,यथा
"जो पिया बनिहें रामा देसवा लागि जोगिया,
हमहू बनि जइबों तब जोगिनिया ए हरी।।1।।
देसवा के निदिया रामा सोइबो जगइबो,
देहिया में रमइबों भल भभुतिया ए हरी।।2।।
जहवा जहवा जाइहे रामा हमरो रावल जोगिया,
सथवा सथवा डोलबि भरले झोरिया ए हरी।।3।।
भूखिया पिअसिया रामा तनिको न लगिहें,
बजर बनाइबि आपन देहिया ए हरी।।4।।
घरवा घरवा जाइ रामा करबि उपदेसवा,
सुफल बनाइबि हम जिनिगिया ए हरी।।5।
इसमें उस समय का वर्णन है, जब देश परतंत्र था और वीर पुरुषों ने जो क्रांति की, उसमें उनकी पत्नियां भी उसी जोश से उनका समर्थन करती है। उन्होंने अपने व्यक्तिगत भाव को देशप्रेम में बाधक नहीं बनने दिया, अपितु अपना जीवन भी वे देश पर उत्सर्ग करने से पीछे नहीं रही है। भोजपुरी क्षेत्र की लोकगीत गायिका शारदा सिन्हा, जिन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया है, उन्होंने तो 'कजरी' को अपना स्वर देकर उसके सौंदर्य में अनुपमता दी, जिसके कारण यह प्रस्तुत कजरी आज भोजपुरी क्षेत्र के सभी जनमानस के जुबान पर अठखेलियां करती है
"कइसे खेले जाई हम सावन में कजरिया बदरिया घिरि आईत
ननदी”
निष्कर्ष:-
निष्कर्ष स्वरूप हम देखते हैं कि इस लोकगीत के माध्यम से भोजपुरी लोक-जीवन में वर्षा की बहार व्यापक हो उठती है। सभी प्रकृति के स्वर से स्वर मिलाते हैं। कुछ इसके माध्यम से अपना दुख व्यक्त करते हैं, कुछ बेसुध होकर जीवन की सच्चाई को बयां करते हैं, तो कुछ देशभक्ति की गरिमा और देश पर न्यौछावर होने का संकल्प लेते हैं। यह लोकगीत केवल वर्षा ऋतु का वर्णन नहीं करती, बल्कि इसके माध्यम से वे जीवन के विविध रूपों को बड़ी सजीवता, विनोद प्रियता एवं दार्शनिकता से अभिव्यक्त करती हैं। इनमें हृदयस्पर्शी आह्लाद तत्व विद्यमान है। 'कजरी' भोजपुरी लोकसाहित्य की अक्षय संपत्ति है।
डॉ आरती पाठक
(सूर्यकांत त्रिपाठी निराला' सम्मान से सम्मानित)
सहा. प्राध्यापक, भाषा एवं साहित्य-अध्ययनशाला,
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर
'भोजपुरी लोकगीतों में कजरी की प्रासंगिकता' पर यह लेख हमारे जीवन में लोकगीतों के महत्व को न केवल रेखांकित करता है बल्कि हमें यह विश्वास भी दिलाता है कि जनसाधारण के हृदय में समय-समय पर हिलोरे लेने वाले मनोभावों का साधारणीकरण ही मूर्त रूप में लोकगीतों के रूप में परिलक्षित होता है। इस बेहतरीन लेखन के लिए डॉ. आरती पाठक मैडम को बहुत बहुत बधाई और साधुवाद। पर एक पाठक के रूप में कहीं -कहीं वर्तनी की अशुद्धियां मुझे खटकती हैं, इस पर यदि कुछ सुधार हो सके तो यह लेख अपने कलेवर में उत्कृष्ट और संग्रहणीय है। सादर।
ReplyDelete'भोजपुरी लोकगीतों में कजरी की प्रासंगिकता' विषय पर यह लेख अपने कलेवर में अत्यंत उत्कृष्ट है। इसे पढ़ने पर हमें पता चलाता है कि जो लोकगीत होते हैं वह जनसाधारण के हृदय में विद्यमान मनोभावों का साधारणीकरण होते हैं । जनसाधारण के मन में समय-समय पर उठने वाले मनोभाव ही मूर्त रूप लेकर लोकगीतों के रूप में प्रकट होते हैं । यह लेख इस विषय पर लेखिका के गहन शोध और गंभीर अध्ययन का परिचायक है। यह लेख अपने कलेवर में अत्यंत उत्कृष्ट है लेकिन एक पाठक के रूप में वर्तनीगत अशुद्धियाँ कहीं-कहीं पर खटकती हैं, यदि इस पर सुधार कर लिया जाए तो यह अत्यंत उत्कृष्ट और संग्रहणीय है। इस बेहतरीन लेखन के लिए डॉ.आरती पाठक मैडम को बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं। सादर।
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