"दुर्लभम् भारते जन्म मनुष्यम् तत्र दुर्लभम्"
कहा गया है कि भारत में जन्म पाना बड़े भाग्य की बात है और विभन्नता में अभिन्नता और अनेकता में एकता हमारे राष्ट्र की मूल पहचान है। विभिन्नता भले ही परिलक्षित होती हो परन्तु हमारी संस्कृति एक है, वह है- भारतीय संस्कृति। भारतीय संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इस के मूल में अवस्थित "समन्वय की भावना"है।
विनोबा जी कहा करते थे कि "मैंने संसार की अनेकों भाषाएँ पढ़ी है, सभी के अपने देश के लिए प्रेम और अभिमान होता है, लेकिन संसार के किसी भी भाषा में ऐसी विलक्षण बात नहीं लिखी गई है कि हमारे देश में कीट-पतंग का जन्म पाना भी एक सौभाग्य की बात है।"
राष्ट्रीय भावात्मक एकता
भाषा' व्यक्तियों को जोड़ने वाली एक बलिष्ठ कड़ी है, साथ ही यह मानव-समाज की सभ्यता और संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने का माध्यम भी है। भारत में अनेक बोलियाँ हैं, भाषाएँ हैं तथा अनेक लिपियाँ हैं किन्तु भारतीय साहित्य की निधि एक है, मूल एक है, कथ्य एक है, प्रतिपाद्य एक है, जो विभिन्न भाषाओं और लिपियों में अभिव्यक्त हो कर दुर्बोध हो जाता है। एक भाषा और एक लिपि के जानने वालों को अन्य भाषा और लिपि दुरूह प्रतीत होती है।
यह प्रश्न आज का नहीं है, अपितु यह समस्या प्राचीन काल से अनवरत् चली आ रही है। भाषाओं की विविधता ने हमारे देश की भावात्मक एवं भावात्मक एकता को गहरा आघात पहुँचाया है और लिपियों की अनेकता ने भगिनी भाषाओं को भी एक दूसरे के लिए अजनबी सा बना दिया है।
विविध प्रकार के बाह्य भेदों एवं भिन्नताओं के रहते हुए भी आंतरिक अभेद एवं अंतःकरण का नाम 'भावात्मक एकता' है। भावात्मक एकता के संबंध हृदय मन एव अतःकरण से होता है, क्योंकि संसार में यह देखा जाता है कि कभी किसी परिवार, समाज एवं रहन-सहन में एकरूपता होती है। जैसे एक परिवार के सभी सदस्य अलग-अलग विचारधारा के होते हैं -कोई कांग्रेसी, कोई जनसंघी तो कोई लोकदली। सभी एक परिवार में रहते हैं, उठते-बैठते हैं, खाते-पीते हैं और हृदय से सभी आपस में जुड़े रहते हुए भी उन की सोच एवं विचारधाराओं में मतभेद रहता है।
ऐसे ही जिस राष्ट्र में विभिन्न विचारों वाला व्यक्ति राष्ट्रीय भावना से पार अपना जीवन-यापन करते हैं, उसे भावात्मक एकता से सम्पन्न राष्ट्र कहा जाता। यह तो निर्विवाद सत्य है जहां अनेक व्यक्ति रहते हैं वहां उनमें वैचारिक विविधता होना अनिवार्य है। विविधता में एकता ही राष्ट्र की शक्ति होती है। संस्कृत के किसा कवि ने कहा है -" संघे शक्तिः कलौयगे ". अर्थात 'एकता में शक्ति है' एक होकर हम कठिन से कठिन काम कर सकते हैं।
"है कार्य ऐसा कौन सा साधे न जिसकी एकता?
देती नहीं अद्भुत-अलौकिक शक्ति जिसको एकता।
दो एक एकादश हुए किसने नहीं, देखे सुने।
हाँ शून्य के भी योग से हैं अंक, होते दस गुने।।"
जहां विचारों में वैविध्य के होते हुए भी भावानाओं की एकता दृष्टिगोचर होती है अथवा बौद्धिक स्तर पर भेद के रहते हए भी हार्दिक भावों में अभेद एवं अभिन्नत्व के दर्शन होते हैं. इसी को भावात्मक एकता कहते हैं।
विविध जाति, धर्म, भाषा, पंथ और सम्प्रदायों वाले इस राष्ट्र में भावात्मक एकता "संजीवनी " के समान है। राष्ट्र के लिए "प्राणवायु" है। विविधता में एकता की कल्पना बिना भावात्मक एकता कदापि संभव नहीं हो सकती है। देश के कर्णधार स्वर्गीय पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "भारत की खोज" के अंतिम पृष्ठों में लिख है -
"India is Geographical and Economic Unity, a cultural unity amidst diversity, bundle of contradictions held together strong but invisible threads."
अर्थात "भारत एक भौगोलिक एवं आर्थिक सत्ता है। अनेकता में सांस्कृतिक एकता है। परस्पर विरोधी तत्वों से बंधा हुआ होने के पर भी सुदृढ़ तथा अदृढ तारों से बंधा हुआ है।" यह अदृश्य तारे हैं, हमारी संस्कृति जिसका निर्माण प्रांतों ने मिलकर किया है। संस्कृति का प्रचार और प्रसार हमारे भारत में सर्वप्रथम संस्कृत भाषा के माध्यम से हुआ, इसी भाषा में चिर-संचित आदर्श, त्याग, प्रेम, क्षमा, अहिंसा, कर्मयोग, उदारता जैसे उद्गार व्यक्त हुए। इसी संस्कृत से हिन्दी की उत्पत्ति हुई। हमारे राष्ट्र का निर्माण भाषायी पृष्ठभूमि पर हुआ है, भाषा के आधार पर प्रांतों, आंतरिक संचरना हई, संविधान में विविध भाषाओं को बराबर मान्यता प्रदान की गई है, अंग्रेजी का भाषाई विष बीजारोपण पहले से था ही, समय-समय पर भाषायी आंदोलन होते रहे, अत: आवश्यकता थी किसी ऐसे कारक की जो प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकें। भाषा-वैज्ञानिकों द्वारा भावात्मक एकता के लिए नागरी लिपि की अभिनव अवधारणा प्रस्तुत की गई।
"लिपियों में लिपि नागरी अदभुत और अनूप।
सबको आकर्षित करे, इसका मानक रूप"।।
भारत की यह महान् सांस्कृतिक परम्परा रही है कि भारत और भारतीय सदा से सहिष्णु रहे हैं। जाति, धर्म, बोली, सम्प्रदाय, लिंग, वर्ण, कुल और वंश की इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारतीयों ने न केवल "एक भारत की कल्पना को साकार किया अपितु विश्व के सम्मुख मनुष्यों में भावात्मक एकता कोचिरजीवी बनाने के उद्देश्य से “वसुधैव कुटुम्बकम्" की अवधारणा को भी प्रस्तुत किया। संभवतः यही कारण है कि इतने व्यवधानों, आंदोलन, आक्रमणों के बीच भी राष्ट्र में भावात्मक एकता की संजीवनी बराबर काम करती रही। भावात्मक एकता हमारी महान विरासत है। इसके पीछे कहीं न कहीं प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से देवनागरी लिपि का योगदान रहा है। 'वेद' भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ, हैं जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा कच्छ से कामाख्या तक वंदनीय है। इनकी लिपि देवनागरी है।
देवनागरी लिपि, वेद, उपनिषद्, आख्यनकों के द्वारा प्राचीन भारत में एकता की पृष्ठभूमि तैयार करने में महत्वपूर्ण कारक थी तो क्यों न आज पुनः उसी कारक का प्रभावी रूप से उपयोग करें। यह सर्वविदित है कि किसी राष्ट्र की महत्ता, प्रभुसत्ता के पीछे उसकी भाषा व लिपि का प्रत्यक्ष अतुलनीय योगदान होता है।
वस्तुतः भारत की भावानात्मक एकता के लिए जितनी आवश्यक भूमिका हिन्दी की होगी, उससे भी अधिक देवनागरी लिपि भारत की एकता का महत्त्वपूर्ण साधन बन सकेगी।
देवनागरी लिपि :
भाषा 'आत्मा' है, तो लिपि उसका 'शरीर' यदि सुन्दर काया को सुन्दर आत्मा मिल जाए तो 'सोने पे सुहागा' वाली उक्ति चरितार्थ हो जाएगी। भारत की भावात्मक राष्ट्रीय एकता की कड़ी को सुदृढ बनाए रखने के लिए सभी भारतीय भाषाओं को समेटे रखने के लिए एक संपर्क लिपि' की आवश्यकता का अनुभव काफी समय से महसूस किया जा रहा था।
भारत वर्ष की विकसित तथा प्राचीन लिपि बाह्मी है। इस लिपि के बाद 400 ई. में गुप्त लिपि का विकास हुआ। गुप्त लिपि के विकसित होने के उपरांत छठी सदा में कुटिल लिपि विकसित हुई। कुटिल लिपि के विकास के साथ 8वीं, 9वीं सदी म प्राचीन नागरी का रूप विकसित हआ। धीरे-धीरे प्राचीन नागरी का प्रचार सम्पूर्ण 'भारत में हुआ। दक्षिण में इसी लिपि को 'नन्दि नागरी' कहा जाता है। प्राचीन नागरी से आधुनिक नागरी, कैथी, मैथली, असमिया, गुजराती, महाजनी, आदि लिपिया विकसित हुई है। आधुनिक नागरी लिपि के विकास का काल 15-16वीं शताब्दी माना जाता है। आजकल इसी लिपि में हिन्दी, संस्कत, नेपाली, मराठी आदि भाषाओं में लेखन एवं मुद्रण का कार्य भी हो रहा है।
अब नागरी लिपि के नामकरण पर विचार-विमर्श कर लेना चाहिए
1. कुछ विद्वान देवनगर (काशी) में इस लिपि के प्रचारित होने के कारण इस लिपि को देवनागरी मानने लगे।
2. कुछ विद्वान यह मानते हैं कि 'नागर' का संबंध गुजरात राज्य के नागर ब्राह्मणों के साथ जोड़ते हैं। उनका मत है कि नागर ब्राह्मणों में प्रचलित होने के कारण ही इस लिपि का नाम 'नागरी' पड़ा।
3. कुछ लोगों की धारणा है कि प्राचीन काल में पाटलिपुत्र को नगर तथा पाटलिपुत्र के सम्राट चंद्रगुप्त को 'देव' कहा जाता था। इन दोनों के नाम पर नागरी लिपि को 'देवनागरी' कहा जाने लगा।
4. डा. धीरेन्द्र वर्मा का मत है कि मध्य युग की एक 'स्थापत्य शैली का नाम 'नागर' था। जिसकी आकृतियां चौकोर होती थीं। नागरी लिपि की अधिकांश अक्षर चौकोर हैं। इसीलिए साम्य के आधार पर इसे 'नागर' या 'नागरिक' कहा गया।
5. इसके बाद सम्मानसूचक 'देव' शब्द के जुड़ जाने पर इसका 'देवनागरी' हो। गया। वर्तमान नागरी लिपि का विकास प्राचीन नागरी से जुड़ा हुआ है तथा इसमें 'देव' शब्द उसी प्रकार जुड गया, जिस प्रकार संस्कृत को 'देवभाषा या 'देववाणी' का नाम दिया।
6. भारत की विभिन्न भाषाएं यदि देवनागरी लिपि अपनाए तो देश को एकता के सूत्र में पिरोने का स्वप्न अविलंब साकार हो सकेगा। देवनागरी की उत्कृष्टता के संबंध में किसी ने ठीक ही कहा है
"सकल लिपियों में उत्तम देवनागरी,
साढ़े तीन अक्षर लगे शब्द बने हरिद्वार,
रोमन में आठ लगे फिर बने हारीद्वार।"
नागरी लिपि को सम्पर्क लिपि के रूप में अपनाना राष्ट्रीय भावात्मक एकता की दृष्टि से आवश्यक है। भावात्मक एकता के प्रोत्साहन के लिए सम्पर्क लिपि के रूप में देवनागरी लिपिके प्रयोग पर विनोबा जी ने बहत बल दिया था। राष्ट्रीय भावात्मक एकता तथा संगठन लिपि की देन है,यदि देश की एक राष्ट्रभाषा के सूत्र में बंधा हुआ है। हमारी राष्ट्रीय भावात्मक एकता के स्वरूप को राष्ट्र-कवि मैथिली शरण गुप्त ने इस प्रकार व्यक्त किया है।
"हे भव्य भरती हमारी मातृभूमि हरी भरी।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।"
राष्ट्रीय भावात्मक एकता के लिए देवनागरी आवश्यक 'क्यों :
चूँकि "राष्ट्रीय भावात्मक एकता में देवनागरी लिपि का योगदान" यह एक नूतन व अभिनव अवधारण है। अतः इस पर आम राय प्राप्त कर राष्ट्रीय भावात्मक एकता के पक्ष में हमें गंभीरतापूर्वक ठोस निर्णय लेना होगा। इसके पक्ष एवं विपक्ष में कई बातें सामने आने की संभावना है। जैस पक्ष में कहा जा सकता है कि राष्ट्र सर्वोपरि है, उसके मंगल के लिए कुछ भी करना अन्याय नहीं है। विरोध में कहा जा सकता है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण आदि-आदि। राष्ट्रीय स्थिरता, एकता, मजबूती, भावात्मक दृढ़ता और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए, भाषा संबंधी किसी आधारभूत निर्णय पर पहुंचना ही होगा।
जिस प्रकार किसी बहुभाषी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में कोई एक भाषा अपेक्षित है, उसी प्रकार बहुलिपि वाले राष्ट्र के लिए संपर्क-लिपि' के रूप में एक लिपि भी अत्यंत आवश्यक है। भारत एक बहुलिपियों वाला राष्ट्र है, जहाँ दर्जनों लिपियों का किसी न किसी रूप में व्यवहार होता है, यथा-देवनागरी, बंगला, तेलुगु, कन्नड़ ग्रंथ, कलिंग, तमिल, वट्टेलुत्त, मलयालम, गुरूमुखी. गुजराती, मोड़ी, कैथी. महाजनी, उर्दू तथा रोमन लिपि आदि।
अतः ऐसी स्थिति में, स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि भारत में संपर्क-लिपि किसी लिपि को चुना जाए। प्रायः भारत की समस्त लिपियाँ ब्राह्मी लिपि की वंशजा है जिसमें से देवनागरी लिपि का प्रचार एवं प्रसार वृहत है। संस्कृत, पालि, प्राकृत. अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी तथा कोंकणी भाषा के लेखन में देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है। इसी कारण प्रायः इसी लिपि का नाम संपर्क-लिपि के रूप में लिया जाता। है और संपर्क-लिपि के रूप में देवनागरी लिपि का नाम सामने आना कोई नई बात नहीं है। आज से लगभग नौ दशक पूर्व एक ऐसे प्रदेश में यह आवाज सबसे पहले सुनाई पड़ी थी, जो न तो हिन्दी भाषा प्रदेश है और न जहाँ देवनागरी लिपिजनिक कामकाज में ही प्रयुक्त होती है, वह प्रदेश 'बंगाल था। हिन्दी भाषा को अखिल भारतवर्षीय भाषा बनाने की आवाज उठाने वालों में जिस प्रकार अहिन्दी भाषा प्रदेश अग्रणी रहा। उसी प्रकार देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि' बनाने की आवाज उठाने में भी। इस जागरुकता का कारण यह था कि वहां सामान्य प्रबुद्धता अन्य जातों की तुलना में बहुत पहले आई। राजा राममोहन राय ने पहले-पहल राष्ट्रभाषा के लिए हिन्दी का नाम लिया और वहीं इसी सदी के पहले दशक में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस श्री शारदाचरण मित्र ने सबसे पहले 'देवनागरी लिपि' को राष्ट्रलिपि के रूप में स्वीकार करने का सुझाव दिया, जो स्वयं हिन्दी भाषी प्रदेश के नहीं थे।
देवनागरी लिपि ही राष्ट्रीय भावात्मक लिपि हो सकती है, इस संदर्भ में विचारणीय एवं उल्लेखनीय तथ्य निम्नलिखित है:
1. देवनागरी लिपि रोमन लिपि की भांति विदेशी लिपि नहीं है, अपितु यह पूर्णतः भारतीय लिपि है। इसकी उत्पत्ति और इसका विकास दोनों ही भारत-भूमि में हुआ है। अतः इसकी जड़ें देश की इतिहास और संस्कृति से संबद्ध हैं।
2. भारत में जितनी भी लिपियां प्रचलित हैं, उनमें देवनागरी लिपि को जानने वालों की संख्या सर्वाधिक है। 3. यह प्राचीन भारतीय लिपि 'ब्राम्ही लिपि से निकले होने के कारण भारत की सभी लिपियां प्रयत्क्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समान है।
4. वैसे तो, सभी लिपियां अपने जानने वालों के लिए सरल होती हैं, किन्तु यदि यह बात छोड़ दी जाए, तो यह कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि पर्याप्त का सरल है।
5. भारत से बाहर नेपाल देश/की लिपि भी देवनागरी है एवं यह पूर्णरूपेण वैज्ञानिक लिपि है जिसमें पहले स्वरों फिर व्यंजनों को स्थान दिया गया है एवं पहले मूल स्वर फिर दीर्घ स्वर फिर हरू स्वरों को स्थान दिया गया है।
6. संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश के अध्ययन का मूलाधार होने के कारण भारत की प्रतिनिधि या प्रमुख लिपि के रूप में विश्व के सभी कोनों में कुछ न कुछ देवनागरी लिपि को अवश्य जानते हैं।
7. वैज्ञानिक लिपि, में जिस भाषा के लिए वह प्रयुक्त हो, उसकी सभी आवश्यक ध्वनियों के लिए अलग-अलग चिन्ह होने चाहिए। देवनागरी लिपि उपर्युक्त दृष्टि से सक्षम एवं समर्थ लिपि है, जिसमें कुछ नए चिन्हों को शामिल कर लेने पर यह सभी भारतीय भाषाओं को सरलता से लिख सकती है।
8. देवनागरी लिपि विश्व के समुन्नता विकसित संस्कृत साहित्य की संवाहिका रही है। इसकी सुरक्षा तथा लोक व्यापीकरण क्या हम भारतीयों का कर्म और धर्म नहीं?
9. देवनागरी लिपि राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान है। इस अवधारणा को हमें जनशिक्षा के माध्यमों से प्रतिबिम्बित करना चाहिए। वैज्ञानिकता, ध्वन्यात्मकता, सरलता, सहजता इसके सहज स्वाभाविक गुण है। यह विश्व की श्रेष्ठतम् लिपियों में से है इसका प्रयोग भारतीय भविष्य के लिए मंगलकारी होगा।
नागरी लिपि के माध्यम से विभिन्न भागों के निवासी अपने विचारों, प्रवृत्तियों और मनोवेगों का आदान-प्रदान करते हैं, एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करते हैं। नागरी लिपि में उच्चारण और लेखन साम्य है।
निष्कर्ष -
इसकी ध्वन्यात्मकता सार वैज्ञानिकता असंदिग्ध है। इसकी सरलता के कारण सीखने बोलने में अधिक अभ्यास की आवश्यकता नहीं। अहिन्दी भाषा-भाषी भी नागरी लिपि का प्रयोग सरलता से करते हैं। वर्गों की संख्या अत्यंत सीमित एवं कोमल है। इसमें प्रयुक्त स्वर एवं व्यंजनों को आसानी से सीखा जा सकता है। इसीलिए भारत की राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता में नागरी लिपि का योगदान अद्वितीय है।
संदर्भ ग्रंथ सूची -
1. तिवारी भोलानाथ , भाषाविज्ञान,2017, सोलवां संस्करण,दिल्ली, पृ.228.
2. पाण्डेय कैलाश नाथ, प्रयोजनमूलक हिंदी की नई भूमिका,2007,प्रथम संस्करण, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.134.
3. सिंह कर्ण, भाषाविज्ञान, 1980चतुर्थ संस्करण, साहित्य भंडार, मेरठ, पृ .357.
सूचनाप्रद व ज्ञानवर्धक शोध आलेख आरती जी,बधाई व शुभकामनाएं ।
ReplyDelete