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आज का समाज और स्त्री-संघर्ष - डॉ. (श्रीमती) आरती पाठक




"सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे अब तो आकाश से पथराव का डर होता है।" (दुष्यन्त कुमार त्यागी)
एक फिल्मी गीत है- 'ओ राधा, तेरे बिना तेरा श्याम है आधा।' महज कहने की बात नहीं, यह सच्चाई भी है। 'शक्तिक बिना शिव को शव ही माना जाएगा। पूणता बिना स्त्री के संभव नहीं है। संतुलन, सहन और सृजन का पर्याय है- 'स्त्री'। एक संप्रदाय है सखी। उसके बारे में पढ़ते हुए मन में एक प्रश्न उठा है कि इसे सखा क्यों नहीं कहा गया ? जवाब मिला कि इस संप्रदाय के कृष्ण-भक्त अपने प्रभु को सखी के रूप में देखते हैं। वे जानते हैं कि मित्रता भी स्त्री के रूप में आकर बेहद निश्चल और सहज हो जाती है। "स्त्री है तो दुनिया में श्रृंगार बचा है, प्रेम का भाव बचा है. घृणा सिर नहीं उठा पाती. फिर भी अफसो....... भ्रूण हत्याएँ बढ़ती जा रही है। सवाल बस इतना है कि हम कैसा जीवन चाहते हैं ? कैसी कुदरत चाहते हैं, जो स्त्री के बिना सोची जा रही है, मांगी जा रही ह. हमार दवारा इच्छित है। उस दिन की कल्पना करें, जब पृथ्वी पर केवल पुरुष होंगे फिर कोई कैसे कहेगा- "मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता बन जाऊँ, माँ से इस कदर लिपटूं कि बच्चा बन जाऊँ।”

"19वीं शताब्दी में बदलती हुई परिस्थितियों में नारी की स्थिति में भी परिवर्तन हुआ। उस समाज में नवीन क्रांति ने भी जन्म लिया। सन् 1920 के बाद से भारतीय नारियों में अभूतपूर्व जागृति हुई है। सती-प्रथा का 1828, बालिका वध 1829. साथ ही बाल-विवाह निषेधक कानून पास हो गया। अखिल भारतीय महिला परिषद् की स्थापना भी नारियों की समस्याओं को सुनने और न्याय करने के लिए की गई।
पिछले दो-तीन दशकों में भारतीय स्त्रियों के आत्मविश्वास, जीवन-शैली, आचार-विचार और भूमिकाओं में काफी बदलाव आए हैं। या यूँ कहें कि 21वीं सदी की शुरुआत में अलग तरह के पुरुष और स्त्री का उदय हुआ। बराबरी से व्यवहार करने वाले जोड़े बनने लगे। पति ज्यादा संवेदनशील होने लगे. नौकरीपेशा बीबी के साथ उनके रिश्ते
बदलने लगे हैं। आज के समाज में ऐसी सोच व्याप्त है कि पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की अस्मिता को दर्जा प्राप्त हो चुका है और मैं भी व्यक्तिगत तौर पर कहीं-न-कहीं इस छलावे में थी कि आज स्त्री अपनी संप्रभुता के झंडे गाड़ रही है। वैज्ञानिक. इंजीनियर, पायलेट, ट्रैफिक कट्रोल पुलिस, ड्रायवर यहाँ तक कि सभी जगह जो पुरुष, समाज के विशेषाधिकार के अंतर्गत आते रहे हैं, सभी क्षेत्रों में सेंध लगा फतह हासिल कर रही हैं। अनंत आकाश और खगोलिय पिंडों के रहस्य को जानने अंतरिक्षा तक का सफर तय कर रही हैं. मम से वशीभूत हम इन आंशिक उदाहरणों पर गौरवान्वित होते हैं कि हमने ऊँचाइयों को छू लिया। आकाश में तबीयत से एक पत्थर उछाला और छेद कर दिया। मैं कहती हूँ. झूठ है सब, परदे के पीछे दुनिया में स्त्री आज भी उन्हीं भयानक, बीमत्स यातनाओं की पीड़ा भुगत रही है और मेरे इस विचार का प्रत्यक्ष और सशक्त समर्थन भले ही आज नारी-विमर्श के उद्धारक न मानें, परंतु स्टार प्लस पर प्रसारित सिरियल 'सत्यमेव जयते' ने कन्या भ्रूण हत्या की जब सतही और सच्ची घटनाएँ प्रस्तुत की, तो देश के छोटे-बड़े हर वर्ग के सोच की पोल खोलकर रख दिया और सच्चाई सामने है कि देश आंदोलित हो उठा। इस शो ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि वास्तव में हम जिस विजयघोष का नारा दे रहे हैं, उसकी जमीनी सच्चाई कितनी है ? औरत को जीवित, भावनाओं से पूर्ण, कोई मानव नहीं अपितु सिर्फ अर्थ प्राप्त करने वाली एक वस्तु, महज वस्तु ही समझा जाता रहा है। आज 1000 लड़कों के पीछे महज 914 लड़कियाँ हैं, तो हम क्या अब भी यही कहेंगे कि हमने अपनी पहचान, अपना अस्तित्व, अपना अधिकार पा लिया है। आज हरियाणा, राजस्थान के कुछ गाँवों में स्त्रियाँ हैं ही नहीं। कल्पना मात्र से सिहरन पैदा हो जाती है, इस परिस्थिति को सोचकर । मात्र 10000 मूल्य में मनुष्य का सौदा, सौदागरों द्वारा किया जाता है। बिहार, बेलगाँव, असम इत्यादि जगहों से लड़कियों को लाकर बेचा जाता है और हम हाथ-पर-हाथ घरे अब भी इसी गुगान में हैं कि हमने परम्परागत पुरुषधर्मिता समाज को तोड़ दिया और जगह बना ली। हम सोचकर देखें कहाँ हुआ हमारा विकास? हम वहीं हैं, कुछ कदम जरूर चले हैं, पर मंजिल इतनी आसान नहीं। 'सत्यमेज जयते' शो के दौरान राजस्थान गवरमेंट के एक महिला ऑफिसर ने यह वक्तव्य दिया कि हम आज भी मुगलकालीन परिस्थितिया में जी रहे है। कुछ भी समय नहीं बदला है यह सोचकर 21वीं शताब्दी की बड़ी-बड़ी बातों पर कैसे यकीन कर सकते है।

डॉक्टर, इंजीनियर, आई.ए.एस, जैसे शिक्षित वर्ग विशेष के लोग कन्या-जन्म के लिए पत्नियों को दोषी ठहरा नाना प्रकार के अत्याचार कर रहे हैं। कैसा शिक्षित समाज है, जो उत्तर देने के बजाए स्वयं प्रश्न उपस्थित कर रहा ह? मेरी व्यक्तिगत सोच है कि क्या स्वयं महिला इसमें सम्मिलित नहीं ? मेरा प्रश्न है कि क्या स्त्री कन्या-शिशु के पैदा होने पर उत्सव मनाती है? तो उत्तर है 89 प्रतिशत नहीं, तो कहीं-न-कहीं हम स्वयं भी जिम्मेदार हैं अपनी इन परिस्थितियों के लिए। तभी तो हम आज अपनी अस्मिता को बचाने पर खड़ी तमाम बाधाओं और संघर्षों से जूझना पड़ रहा है। यहाँ यह विचार भी लाजमी है कि हमारे न्यायविधान में महिलाओं की सुरक्षा एवं अधिकारों के अनेक नियम बनाए गए हैं. जिससे उनको प्रताड़ित होने से बचाया जा सके. उन्हें उनक अधिकार दिए जा सकें। यह सच है, बिल्कुल सच है पर एक सच यह भी है, जिसको हम अब नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं, यहाँ यह बताना बेहद आवश्यक लग रहा है कि डॉ. नोत् खुराना (सत्यमेव जयते) ने शो के दौरान बताया कि उनके पति आर्थोपेडिक सर्जन हैं. बेटियों के जन्म के दोषी और जिम्मेदार डॉ. (श्रीमती) खुराना को मानते हैं। जब डॉ. (श्रीमती) खुराना ने न्यायलयों में गुहार लगाई तो न्यायाधिश महोदय ने कहा कि इसमें गलत क्या है ? उसे बेटा दे दो। अब बताइए कि न्याय करने वाले ही असंगति का साथ देंगे तो उन नियमों और कानून का पालन कौन करेगा? क्या यह कानून महज पुस्तकीय पूँजी के लिए बने है ? सेल्फ और लाइबेरियों की शोभा बढ़ाने के लिए हैं ? इस तरह के विचार रखने वाले न्याय की कुर्सी पर बैठे अधिकारियों का क्या ? यह प्रश्न आज उन सभी भारतवासियों के जेहन में है. जो थोड़े से भी मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील हैं ? यह सवाल कुरेद रहे हैं, हम सभी के मस्तिष्क को ?
आज दामिनी, गीतांजली जैसी पढ़ी-लिखी लड़कियों समाज के अति अमानवीय, पाशविक, हिंसक प्रवृत्ति की शिकार हो रही हैं. इन अनाचारों से वे या तो स्वयं मानसिक अवसाद में आकर आत्महत्या कर लेती हैं. या अपनी कोई गलती न होने के बावजूद तिल-तिल कर मर जाती हैं। 'दामिनी' केस के अति संवेदनशील समय के दौरान हमारे देश के न्यायाधीश महोदय श्री मार्कण्डेय कटाजू का यह वक्तव्य आता है कि ग्रामीण इलाकों में इस तरह की घटनाएँ आम है, देश में आज और भी गंभीर समस्याएँ हैं, जिन पर विचार करना चाहिए। 'दामिनी' जो सड़क पर तड़प रही थी और पुलिस इस पर विचार कर रही है कि यह किस थाने का केस है। सोचकर बड़ी हैरानी होती है कि शीर्षस्थ पदस्थ लोग शायद मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख चुके हैं। हमारे देश के अति प्रतिष्ठित पत्रकार एवं राज्यसभा के सांसद राजीव शुक्ला राज्यसभा सत्र के दौरान जब जया बच्चन का उदबोधन हो रहा था, जो कि 'दामिनी' केस से संबंधित वक्तव्य था, उस दौरान वे मुस्कुरा रहे थे। जैसे कोई उनका सरोकार है ही नहीं, चलो ना हो, पर देश के आवाम का सम्मान तो कर ही सकते थे, चुप रह कर मौन साधकर।
आज हम बराबरी की बातें कर रहे हैं, कहाँ है बराबरी ? राबर्ट वाड्रा, नितिन गडकरी, लालू यादव के घोटालों पर देश की छोटी-बड़ी सभी पार्टियों के दिग्गजों से आम विधायक खलवला जाते हैं, पर अमानवीय कृत्यों पर सभी मौन के पुजारी बन संवेदना व्यक्त करते पाए जाते हैं। जो भी है. निष्कर्ष यही है कि कथनी और करनी में आज भी उतना ही भेद परिलक्षित है, जितना सदियों पहले था। महादेवी वर्मा के अनुसार- "पुरुष के दवारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परंतु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं।" हमें अपने अधिकारों, स्वतंत्रता और सम्मान के लिए अधिक तटस्थ भाव से उठना है. जवाब देना है. जवाब माँगना सीखना है। अपने ऊपर हो रहे जुल्म को रोकने का साहस लाना ही है, समय कठिन है, पर कश्ती पर चढ़कर लहरों से हारकर, थककर नहीं, बल्कि जूझते हुए पार जा विजय-पताका फहराना है। हमें जिमेदारी को उठाना है और अथक प्रयास कर बर्बरता, असभ्यता, अमानवीयता, जो समाज में छाए हुए हैं. इन घने कुहासे को चीर कर निकलने वाले प्रभास-किरण को स्थापित करना है। यही हमारा दृढ संकल्प है।

   ~ डॉ. (श्रीमती) आरती पाठक सहा.प्रध्यापक, सहित्य एवं भाषा-अध्ययनशाला पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़)

Comments

  1. Aap adbhut hai mam bahoot acha likha aapne

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  2. बहुत अच्छी रचना आरती जी!

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  3. I agree with your thoughts Aarti. You r doing excellent service for our society, I am with you and always for my country.Jai Hind,🙏

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  4. यथार्थ और सुंदर रचना आरती मैंम

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  5. Behtareen lekhan. Samaj k satya ko bahot khoobsurti se darshaya hai aapne... koti koti naman🙏🙏

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  6. बेहतरीन लेखन... सत्य को बहुत ही सटीक तरह से लिखा गया है.. आपके लेखन में बहुत ताकत है लिखते रहिए...🙏🙏

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