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सिख धर्म के नौवें गुरु श्री तेग बहादुर जी का 400वां प्रकाश पर्व


गुरु जी का निवास आनन्दपुर साहिब मुगलों के अन्याय व अत्याचार के खिलाफ जनसंघर्ष का केंद्र बनकर उभरने लगा। औरंगजेब हिन्दुस्तान को दारुल-इस्लाम बनाना चाहता था। इस क्रूर कृत्य को रोकने का एक ही मार्ग था - कोई महापुरुष देश और धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदान दे। प्रश्न था - यह बलिदान कौन दे? इसका समाधान गुरु जी के सुपुत्र श्री गोविन्द राय जी ने कर दिया। उन्होंने अपने पिता से कहा, इस समय देश में आपसे बढ़कर महापुरुष कौन है?

औरंगजेब की सेना ने गुरु जी को तीन साथियों समेत कैद कर लिया। सभी को कैद कर दिल्ली लाया गया। वहां उन पर अमानुषिक अत्याचार किए गए। इस्लाम स्वीकार करने के लिए उन पर शिष्यों सहित तरह-तरह के दबाव बनाए गए। धर्म गुरु बनाने व सुख-संपदा के आश्वासन भी दिए गए। लेकिन वे धर्म के मार्ग पर अडिग रहे। दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर की आंखों के सम्मुख भाई मति दास, भाई दियाला और भाई सती दास को यातनाएं देकर मार डाला गया। मुगल साम्राज्य को शायद लगता था कि अपने साथियों के साथ हुआ यह व्यवहार गुरु जी को भयभीत कर देगा। गुरु जी जानते थे कि अन्याय और अत्याचार से लडऩा ही धर्म है। वे अविचलित रहे। गुरु जी का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। उनके इस आत्म बलिदान ने पूरे देश में एक नई चेतना पैदा कर दी। दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह ने अपने पिता के बलिदान पर कहा-

तिलक जंजू राखा प्रभ ताका।
कीनो बड़ो कलू महि साका।
साधनि हेति इति जिनि करी।
सीस दीआ पर सी न उचरी।



आज जब सारा देश गुरु जी के प्रकाश के चार सौ साल पूर्ण होने का पर्व मना रहा है तो उनके बताए रास्ते का अनुसरण ही उनकी वास्तविक पुण्य स्मृति होगी। आज सर्वत्र भोग और भौतिक सुखों की होड़ लगी हुई है। चारों तरफ ईष्र्या-द्वेष, स्वार्थों एवं भेदभाव का बोलबाला है।

गुरु जी ने समाज को त्याग, संयम, शौर्य और बलिदान की राह दिखाई। उन्होंने सृजन, समरसता और मन के विकारों पर विजय पाने की साधना की चर्चा की। उनका प्रभाव ही था कि वे दिल्ली जाते हुए जिस-जिस गांव से गुजरे, वहां के लोग आज भी तम्बाकू जैसे नशों की खेती नहीं करते हैं। कट्टरपंथी एवं मतांध शक्तियां आज पुन: विश्व में सिर उठा रही हैं। मानव जाति परिवर्तनशील नए पड़ाव में प्रवेश कर रही है। ऐसे समय में गुरु जी का पुण्य स्मरण यही है कि उनके मार्ग पर चल कर उस नए भारत का निर्माण करें जिसकी अपनी मिट्टी में उसकी जड़ें सिमटी हों।

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