आज जमाना हाईटेक का है, कंप्यूटर का है, भूमंडलीकरण का है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में नई-नई प्रेरणाएँ, परिकल्पनाएँ और विचारधाराएँ, देश, समाज तथा मनुष्य को आंदोलित कर रही हैं। विश्व-पटल पर फूटे उच्च प्रौद्यागिकी के स्रोत ने जहाँ ‘ग्लोबल विलेज’ (विश्वग्राम) की परिकल्पना को साकार किया है, वहीं मीडिया की संपूर्ण स्थिति भिन्न-भिन्न रूपों में, कई-कई स्तरों पर आज चुनौतियों से टकरा रही है। विशेष रूप से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के सर्वग्राही अतिक्रमण पर बहस चल पड़ी है।
‘इलेक्ट्राॅनिक मीडिया’ के शब्द प्रयोग से ही हमारे मानस-पटल पर इलेक्ट्राॅनिक जनसंचार अर्थात् रेडियो तथा टेलीविज़न का नाम सबसे पहले आता है। हाल के दशकों में अगर किसी संचार माध्यम ने भारतीय जनमानस को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है, तो वह यही माध्यम है।
इलेक्ट्राॅनिक मीडिया: प्रकार एवं स्वरूप
भारतीय गणतंत्र ने अपने 71 वर्षों के सफर के दौरान सूचना और संचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है। विशेष तौर पर, 1990 के दशक में शुरू हुए उदारीकरण के दौर में प्रवेश के बाद, तब से लेकर आज तक पिछले दो दशकों में भारत ने भूमंडलीकरण के फार्मूले को अपनाकर विश्व बिरादरी में अपना एक महत्वपूर्ण मुकाम बनाया है। 1990 के दशक के बाद का सफर सूचना-क्रांति के विस्फोट का गवाह रहा है। इसी दशक से रेडियो, दूरदर्शन से आगे यानि सरकारी नियंत्रण से निकलने का रास्ता तलाशा, जिसके बाद देश के पहले उपग्रह चैनल तथा इसके मेल से उपग्रह टेलीविज़न चैनल की उपज हुई। इसकी तादाद आज सैकड़ों में पहुँच गई है, बाद में इंटरनेट, वेब-मीडिया, सोशल-मीडिया, मोबाइल इत्यादि इसके साक्षी बने। इस क्रांति ने सूचना को रूप, रंग, गंध और स्पर्श के जैसा ही सुलभ बना दिया है।
वैसे तो धार्मिक ग्रंथों में रेडियो तथा टेलीविज़न दोनों माध्यमों से मिलते-जुलते संचार माध्यमों का जिक्र मिलता है। ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ श्लोक में जान पड़ा कि महाभारत में संजय ने धृतराष्ट्र को युद्ध का सीधा प्रसारण सुनाया। नारद मुनि की आकाशवाणी भी वर्तमान रेडियो प्रसारण का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना गया, साथ-ही श्रीकृष्ण कथा में कंस द्वारा अपने वध के डर से वासुदेव-देवकी के सभी पुत्र-पुत्रियों की हत्या के समय हुई आकाशवाणी भी इसी का हिस्सा मानी जा सकती है। हालाँकि प्रमाणिकता के अभाव में भौतिकवादी लोगों को विश्वास नहीं होता है, इन प्रसंगों पर। बहरहाल इस मीडिया में असली क्रांति 1982 के एशियाई खेलों के दौरान रंगीन क्रांति के माध्यम से आई।
सोशल-मीडिया की ताकत व प्रभावों से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। 2014 में फेसबुक, ट्वीटर, ब्लाॅग, यू-ट्यूब, वाट्स-अप, टेलीग्राम आज इन सभी के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। सूचना-क्रांति में इन विभिन्न प्लेटफार्म, जो सोशल-मीडिया का है, उनसे समाज का कोई वर्ग अब अछूता नहीं है। इनकी गहरी पैठ समाज के अंदर धँस चुका है। इसका उदाहरण हम भ्रष्टाचार अभियानों, आम चुनाव, निजी ज़िंदगी तक में गहरा हस्तक्षेप करता है। लोगबाग का निजी प्रेम-प्रसंगों तक पर सामाजिक रूप से चर्चा होना इस बात का नतीजा है कि इसकी जड़ों का विस्तार कहाँ तक पहुँच गया है। ट्वीटर के चलते तो हमारे देश में एक विदेश मंत्री को इस्तीफ़ा तक देना पड़ा था। यह इन सभी सोशल-मीडिया क्रांति का ही असर है कि चाहे राजनैतिक-वर्ग, सामाजिक-वर्ग, काॅर्पोरेट हो या कोई सरकारी संस्थान, सभी सोशल-मीडिया पर अपने-अपने को दर्ज़ कराने में लगे हैं।
सोशल-मीडिया के एक और प्रकार ‘ब्लाॅग’ ने भी समाज में संचार-क्रांति लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आजकल तो हर व्यक्ति अपनी छोटी-बड़ी अभिव्यक्ति के लिए इस प्लेटफार्म का प्रयोग कर रहा है। सोशल-मीडिया ने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को त्वरित रूप प्रदान कर जन-जन तक सुलभ कराया। पहले एक समय में देश के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवानी का ब्लाॅग, अमिताभ बच्चन का ब्लाॅग, अन्ना हजारे का ब्लाॅग, मरहूम बाल ठाकरे का ब्लाॅग मीडिया के लिए खबरों का महत्वपूर्ण स्रोत रहा।
इलेक्ट्रॅनिक मीडिया के प्रकार:
1. रेडियो
2. टेलीविज़न
3. मोबाइल
4. सोशल-मीडिया (फेसबुक, ट्वीटर, यू-ट्यूब, वाट्स-अप, अन्य)
5. ब्लाॅग
6. सिनेमा
7. इंटरनेट
8. वर्चुअल मीडिया
उपर्युक्त वर्णित समस्त प्रकारों में से मैं आपका ध्यान वर्चुअल मीडिया की ओर लाना चाहती हूँ। तकनीक के इस दौर में तेजी से पैर फैलाती इस आभासी दुनिया/आभासी पटल लोगों की जरूरत बनती दिखलाई पड़ रही है। कोविड-19 के इस संकटजन्य दौर में यह तकनीक और उभर कर सामने आई है। आज हम ‘नेटीज़न’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, उन लोगों के लिए जो लगातार दिन भर ‘इंटरनेट’ के मायाजाल में फँसे होते हैं, साथ-ही-साथ एक नए शब्द का प्रयोग ‘जनरेशन 5’ की बात कही जा रही है। ‘जनरेशन 5’ अर्थात् ‘इंटरनेट’ के माध्यम से एक कोल-कल्पित ‘आभासी पटल’ की तैयारी हो चुकी है, जो वास्तविकता के समकक्ष है। इंटरनेट एवं तकनीकी के इस मायाजाल में सारी दुनिया जुड़ चुकी है और अपने जीवन का पर्याय भी बन चुकी है।
आभासी, कल्पित, वास्तविक मीडिया। एक ऐसी दुनिया जो वास्तविक जीवन के समकक्ष बनाई गई बिल्कुल वास्तविक सी आभास होने वाली ‘आभासी मीडिया’। ‘वर्चुअल मीडिया’ के समकक्ष ही एक और शब्द ‘वर्चुअल रियलिटी’ चल पड़ा है। ऐसी स्थिति में कोविड-19 के दौर में यह ‘वर्चुअल मीडिया’ की सार्थकता को और दर्ज़ कराया है। जहाँ हम इस विश्व व्यापी महामारी के कारण समाज में प्रत्यक्ष रूप से जुड़ नहीं पा रहे थे, इस विधा के कारण पूरा विश्व इस माध्यम से जुड़ा और अपने ज्ञान के विभिन्न आयामों का आदान-प्रदान ‘वर्चुअल मीडिया’ के विभिन्न माध्यमों- यू-ट्यूब, गूगल-मीट, ज़ूम, फेसबुक, कू, टेलीग्राम के साथ-साथ जुड़कर एक-दूसरे से जुड़े और अवसादग्रस्त परिस्थिति से ज्ञान के विभिन्न पायदानों का सहारा लेकर बचे।
जब हम ‘वर्चुअल रियलिटी’ की बात कर रहे हैं, तो इस बारे में भी बिना चर्चा किए यह विषय अधूरा है।
‘वर्चुअल’ का अर्थ होता है, आभासी यानी सच। ऐसे में वर्चुअल रियलिटी का मतलब होता है कि हमें आभासी रूप से सच्चाई का अनुभव हो रहा है। उदाहरण के तौर पर, यदि आप कोई जगह देखने आए हैं तो आप उस जगह को सच में देख रहे हैं, लेकिन यदि आप उस जगह की फोटो या विडियो देखते हैं तो आपको यह महसूस हो जाता है कि आप सच्चाई में वहाँ नहीं हैं, बल्कि सिर्फ चित्र देख रहे हैं, लेकिन यदि आपको घर बैठे ही ऐसा अनुभव मिल सके कि आप अपनी मनपसंद जगह घूम रहे हैं तो कैसा होगा ? वर्चुअल रियालिटी कुछ ऐसा ही है।
‘वर्चुअल रियालिटी’ शब्द आपने कई बार सुना होगा, लेकिन इसका अनुभव कुछ ही लोगों ने किया होगा। दरअसल वर्चुअल रियालिटी एक ऐसी टेक्नोलाॅजी है, जो वर्चुअल इमेज, वर्चुअल साउंड और दूसरी कई वर्चुअली चीजें दिखाने के लिए काम आती है। इसको कोर्ट फाॅर्म में ‘वीआर’ भी कहते हैं|
जब आप इसको इस्तेमाल करते हैं तो आपको ऐसा महसूस होता है कि ये बिल्कुल ओरिजिनल (वास्तविक) है और आपके सामने ही सब कुछ हो रहा है। इसको प्रयोग करने पर ऐसा लगने लगता है कि आप उसी माहौल में मौजूद हैं। ‘वर्चुअल रियालिटी’ हेडसेट को पहनने के बाद अगर आप किसी 360 डिग्री विडियो को देखते हैं तो आप ऊपर-नीचे, आगे-पीछे घूम कर भी देख सकते हैं।
वर्चुअल रियालिटी एक ऐसी आभासी दुनिया का निर्माण कर देता है, जो कंप्यूटर साॅफ्टवेयर द्वारा निर्मित है, लेकिन आप इसका हिस्सा बन सकते हैं। इसका अनुभव लेने के लिए दृष्टि और ध्वनि का प्रयोग किया जाता है। जिन खेल को आप मोबाइल अथवा कंप्यूटर पर खेला करते थे, वर्चुअल रियालिटी के माध्यम से आप उनका हिस्सा बन सकते हैं, आप कमरे में बैठे-बैठे अंतरिक्ष की यात्रा पर जा सकते हैं। किसी कार को ड्राइव कर सकते हैं। खेल (गेमिंग) की दुनिया में तो इसने तहलका सा मचा रखा है। इस कृत्रिम संसार को वास्तविक बनाने के लिए गेम डेवलपर्स ने कृत्रिम रूप से दृश्य, श्रव्य, स्पर्श और गंध को शामिल किया है।
इन उपकरणों के माध्यम से हम इनका अनुभव ले पाते हैं।
1. डायरेक्टर वीआर हेटसेट (गूगल, कार्डबोर्ड, प्लास्टिक वीआर सेट, गियर वी आर)
2. मोबइल स्क्रीन
इनका प्रयोग एक अलग दुनिया में ले जाता है। इन सारी चीजों का अगर महत्व है तो उसी रूप में वह आपको कमजोर बनाता है/नुकसानदायक भी होता है। यह अगर आपको आनंद देती है तो यही आपको वास्तविकता से दूर ले जाती है। आप को अपना आदी बना देता है और अवसाद की स्थिति में भी ले जाता है। एक अजीबोगरीब नशे का निर्माण करता है, जिससे व्यक्ति अपने आप को खो-सा देता है।
सोशल-मीडिया का मतलब है ‘सोशल कम्यूनिकेशन’ के द्वारा लोगों के साथ आपस में जुड़ना। यह ठीक शारीरिक नेटवर्क की तरह है, परंतु यह नेटवर्क ऑनलाइन होता है। चूँकि आज का दौर ऑनलाइन का है इसीलिए लोग आपस में बातचीत करने के लिए, संपर्क बढ़ाने के लिए, अपने ज्ञान एवं अन्य विषयों की जानकारी साझा करने के लिए इस माध्यम का सहारा आज के दौर की एक जरूरत बन गई है, ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
90 के दशक में पहली बार सोशल-मीडिया की चर्चा जब 1994 में सबसे पहला सोशल-मीडिया जो सोशल साइट के रूप में लोगों के सामने आया। इसका उद्देश्य एक ऐसी वेबसाइट बनाना था, जिसके माध्यम से लोग अपने विचार और बातचीत आपस में साझा कर सकें।
2000 की शुरूआत में इसने भी प्रमुखता हासिल की। 1999 में पायरा लैब्स ने एक होस्टिंग टूल के रूप में किया और 2003 में गूगल ने इसे खरीद लिया। 2005 में यू-ट्यूब, 2006 में फेसबुक और ट्वीटर, 2009 में वाट्स-अप, 2010 में इंस्टाग्राम, 2013 में टेलीग्राम इत्यादि प्लेटफार्म निर्मित हुए| जिससे आप ‘वर्चुअल दुनिया’ में वर्चस्व स्थापित कर चुके हैं।
समस्त मापदंडों को देखने के बाद निष्कर्ष स्वरूप कह सकते हैं कि इस वर्चुअल मीडिया के बहुत सकारात्मक पक्ष है, पर इसके दुश्प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता है। इस आभासी पटल से लोग जुड़ रहे हैं, पर कहीं- न-कहीं इसके कारण वास्तविक पटल से अलग हो एक अलग सामाजिक ढाँचा बनाते जा रहे हैं, जो कि संवेदनहीन है। हमें जरूरत है उस समाज की जहाँ संवेदनाओं की गहरी जड़ें थीं, जहाँ व्यक्ति वास्तव में एक-दूसरे से जुड़ा, एक- दूसरे को समझता और सहयोग करता था। आजा निःसंदेह हम प्रगति पर हैं, परंतु मानवीयता कहीं पीछे छूटती जा रही है। मूल से दूर हो रहे हैं।
‘‘एक आदर्श समाज में अनेक अभिरुचियाँ सचेतन स्तर पर संप्रेषित और साझा की जाती है... दूसरे शब्दों में ‘सोशल एन्डोस्मोसिस’ अत्यावश्यक है।’’
- भारतरत्न डाॅ. बाबासाहब अंबेडकर
(लेखिका - डॉ. आरती पाठक)
( लेखिका पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ के साहित्य एवं भाषा विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। )
👍👍
ReplyDeleteबहुत अच्छा व शोधपरक आलेख आरती जी 🙏
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