जनता के दिलों पर राज करने वाले अटल राजनेता और ईमानदार कवि थे अटल बिहारी वाजपेई, पढ़िए जन्म दिवस पर विशेष
आज 25 दिसंबर है।25 दिसंबर को 2014 से भारत में सुशासन दिवस के रूप में मनाया जाता है। सुशासन दिवस इसलिए मनाया जाता है कि इसी दिन प्रखर राजनेता, ओजस्वी वक्ता, कलम के जादूगर, कवि हृदय, संवेदनशील व्यक्तित्व के धनी, भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म दिवस है। वाजपेयी जी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ था। अटल जी जिस तरह अपनी बात पर अटल रहा करते थे उसी तरह अपनी संवेदनाओं में भी सदैव अटल रहे जो उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखाई देती है।सामान्य तौर पर साहित्य के लोग यह मानते हैं कि संवेदनशील या कविहृदय होने के लिए राजनीतिक प्रपंचों से रचनाकार को दूर रहना चाहिए परंतु किशोरावस्था में वाजपेयी जी न केवल छात्र राजनीति में सक्रिय रहे अपितु अपनी साहित्यिक यात्रा भी जारी रखी। अटलजी का हर अंदाज अनोखा था।
जनता सरकार (1977) में विदेशमंत्री रहते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ में जिसतरह से उन्होंने हिंदी में भाषण दिया वह उनकी स्वभाषा के प्रति प्रेम को दर्शाता है, साथ ही उन लोगों को सचेत भी करता है जो उस समय या आज भी भाषायी दृष्टि से गुलामी में जकड़े हुए हैं। उनका इस भाषण ने राष्ट्रभाषा हिंदी को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलायी और प्रधानमंत्री रहते, महाशक्तियों के प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए पोखरण परमाणु विस्फोट कर दुनिया को बता दिया कि भारत अपनी सुरक्षा के निर्णय लेने में संपूर्ण समर्थ है। जनसभाओं के वे बेताज बादशाह रहे। जनता के दिलों पर राज करने वाले वाजपेयी जी जनसभा में पहुंच कर ‘बहनों एवं भाइयों’ के संबोधन से अपनी बात शुरू करते तो चारों से तालियां थमने का नाम नहीं लेती। लोग मंत्रमुग्ध होकर अटलजी की भाषण-सरिता में गोते लगाते रहते । कहना कठिन होता कि वे कविता में राजनीति कह रहे, या राजनीति में कविता! अटल जी बताया करते थे कि एक बार उनसे किसी ने पूछा कि अब वे कविताएँ क्यों नहीं लिखते? यह बात नब्बे के बाद की है जब वे एक परिपक्व नेता बन चुके थे, तो उन्होंने उत्तर दिया कि कविता लिखने के लिए कवि हृदय बहुत आवश्यक है।और जैसे - जैसे मैं समय के साथ राजनीति में ज़्यादा आगे आया, मेरा हृदय कवि हृदय कम होता जा रहा है, मुझे स्वयं इस बात का दुःख है। उत्तर में वाजपेयी जी की छटपटाहट साफ़ देखी जा सकती थी। उन्होंने बिना झूठ बोले इस बात को स्वीकार किया और यह कार्य एक ईमानदार कवि ही कर सकता था। हम मानव ही दूसरे मानव के प्रति हृदय में कटुता रखते हैं, कलुषता रखते हैं, ईर्ष्या व घृणा करते हैं। ऐसे में अटल जी कहते हैं अपने अंदर का सारा ज्ञान व स्नेह उड़ेल दो। मनुष्य के हृदय के जो तार नहीं मिल पा रहे हैं, इन्हें मिलाकर झंकृत कर दो और स्नेह का दीपक, प्रेम का प्रकाश फैलाकर पूरी दुनिया में किरणें बिखेर दो-
“भरी दुपहरी में अंधियारा,सूरज परछाईं से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ!!!”
उनकी कविताएं वास्तव में हृदय को झकझोर जाती हैं। वास्तव में उन्हें विरासत में कविताई मिली थी। आदमी के संदर्भ में लिखी उनकी पंक्ति देखिए..
आदमी न ऊँचा होता हैं न नीचा होता है
न बड़ा होता है न छोटा होता है
आदमी सिर्फ आदमी होता है।
आदमी को आदमी मानना आदमियत को दर्शाता है और यह महामानव ही समझ सकता है। वाजपेयी जी का मानना था कि व्यक्ति चाहे जितनी भी उँचाईयों को छू ले लेकिन यदि वह अपने पुराने पल और पुरानी जमीन से अलग हो जाता है तो वह एकाकी हो जाता है। उन्होंने सही लिखा है ..
जितना उँचा होता है,
उतना एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ढोता है
चेहरे पर मुस्कान चिपका
मन ही मन रोता है
जरूरी यह है कि उँचाई के साथ विस्तार भी हो
जिससे मनुष्य ठूँठ सा खड़ा न हो
औरों से घुले-मिले
किसी का साथ ले
किसी के संग चले....।
राजनीति के महापुरुष होने के बावजूद भी वे बेईमानी या लाशों पर चलकर सत्ता नहीं प्राप्त करना चाहते थे। वे अपनी कविता 'सत्ता' में लिखते हैं कि भले ही मनुष्य का मनुष्य के साथ धर्म, जाति, संप्रदाय का रिश्ता न हो लेकिन एक धरती पर जन्म लेने का रिश्ता तो है...
मासूम बच्चों, बूढी औरतों
जवान मर्दों की की लाशों के ढेर पर चढ़कर
जो सत्ता की सिंहासन पर पहुँचना चाहते हैं
उनसे मेरा एक सवाल है
क्या मरनेवालों के साथ
उनका कोई रिश्ता न था??
न सही धर्म का नाता
क्या धरती का भी संबंध न था...
वे मनुष्य को छोटे-बड़े के भेद को नहीं मानते थे। भारत में तो इंसान जाति से भी श्रेष्ठ व हीन है। धर्म से भी श्रेष्ठ और नीच है, परंतु बाजपेयी जी ने केवल मानव होने की बात स्वीकार की अपितु एक राजनेता का कवि हृदय समानता का पक्षधर रहा जिसे उन्होंने राजनीति में भी अपनाने की कोशिश की। उनकी बड़ी प्रसिद्ध कविता है 'गीत नहीं गाता हूं' में उनकी पीड़ा परिलक्षित होती है:
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं। टूटता तिलिस्म आज सच से,
भय खाता हूं, गीत नहीं गाता हूं
वही कोमल दिखने वाली चेहरे से जब नकाब हट जाता है तो असलियत उजागर हो जाती है।उस सच से जो मानवीय मूल्यों का विरोधी है वह भय खाते हैं। इतने सारे अपने लोगों में कोई मित्र ना मिल पाना आज के समाज की सच्ची पीड़ा है, मूल्यों का विघटन है। वे न केवल अपने जीवन में अपितु अपने राजनीतिक क्षेत्र में भी पीड़ाओं से डरते नहीं हैं; वे रुकते हैं, संघर्ष करते हैं, सामना करते हैं और उस अदम्य जिजीविषा का परिचय देते हैं जो युगों युगों से मानव का स्वभाव रहा है:
टूटे हुए सपनों की
कौन सुने सिसकी,
अंतर की चीर व्यथा
पलकों पर ठिठकी।
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर
लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं।
वास्तव में अटल जी अटल थे। ऐसे युगदृष्टा कवि हमारे जेहन में सदैव रहेंगे। यदि मृत्यु अटल है तो अटल जी अमर हैं। ऐसे जनता के नेता, ओजस्वी वक्ता, संवेदनशील कवि जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति सदियों में एक होते हैं और इसीलिए उस समाज में अमर हो जाते हैं।
(लेखक - डॉ. आलोक रंजन पांडेय)
उम्दा लेख,बधाई आपको
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